कुछ बातें
कविता - संग्राम (किसान) E1
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©कुछ बाते |
"किसान"
बढ़ चला है हुकूमत कि व आग
जो थम तो नहीं रहा है,
मांगूँ अपना हक तू देश का
प्रमाण मांग रहा है
बढ़ चला है हुकूमत कि व आग
जो थम तो नहीं रहा है,
सर्द भरी खुले आसमां के मौसम
में दर्द सह रहा हूँ
मेरी मरीं हुई व लाश तुझे अदृश्य
नजर आ रहा हूँ
बढ़ चला है हुकूमत कि व आग
जो थम तो नहीं रहा है,
बिक चुकी देश कि व चौथी स्तंभ
तेरे आगे, हमें नहीं खरीद पाओगे
बढ़ चला है हुकूमत कि व आग
जो थम तो नहीं रहा है,
उम्मीद भरी इन जज्बों से कायम
हैं हम
तुझमें कुछ लज्जा होगी समझेगा
हमारी ऐ दर्द
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